Saturday, 1 April 2017

नया दौर


नन्ही सी पारी आज बड़ी सी गो गयी है , घर से क्या निकली खुद ही खो चुकी है । ज़िन्दगी की इस भगा दौड़ी में हम कही न कही खुद को खो चुके है । सब की ख़ुशी में अपनी हँसी भूल चुके है । अच्छे  थे वो बचपन के लड़कपन के दिन जब सिमटी थी ज़िन्दगी कुछ गलियों के अंदर ।
नादान ही खुश थे उन बचपन की गलियों में ,बड़े क्या हुए है खुद को ही भूले ।इस रफ़्तार भरी ज़िन्दगी में हम गलती से ही सही पर हम काम और रिश्तों को उलझा रहे है । रिश्तों की डोर इतनी ज़्यादा कमज़ोर हो चुकी है की चंद लमहों में ही टूटने को आती है ।
"रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाए ,
टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पढ़ जाए ।"
ये दोहा हम सबने कभी न कभी तो पढ़ा होगा ,पर इन शब्दो के मायने उन गलियों से निकलकर ही समझ आए है । रिश्तों में दरारें आती है , और ठीक भी हो जाती है पर कहीं न कहीं फिर से जुड़े उन रिश्तों में गांठे लग ही जाती है और इसी झिझक से रिशतें और बिगड़ने लग जाते है ।
ऐसे में सवाल यह उठता है की ऐसी परिस्थिति में किआ क्या जाए ?
किसी भी परिस्थिति में खुद न खोने दे मेरे दोस्तों । आपके चेहरे की मुस्कुराहट वक़्त के साथ काम नहीं होनी 
चाहिए ।
टूटे हुए रिश्तों को वक़्त के साथ ठीक करना ज़रूरी है परंतु अगर वे रिशतें कच्चे धागों से बंधे है तो उन्हें जाने देना ही बेहतर होगा वरना खुद को इस भीड़ में खोने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा ।
'नन्ही सी परी अब उड़ने को है चली 
हर कदम एक जंग सी है लग रही,
राह में है मोड़ कई ,
पर यही ज़िन्दगी का मतलब सिखलाती है ।'

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Significance of the Basics